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अ॒यं स यो व॑रि॒माणं॑ पृथि॒व्या व॒र्ष्माणं॑ दि॒वो अकृ॑णोद॒यं सः। अ॒यं पी॒यूषं॑ ति॒सृषु॑ प्र॒वत्सु॒ सोमो॑ दाधारो॒र्व१॒॑न्तरि॑क्षम् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ sa yo varimāṇam pṛthivyā varṣmāṇaṁ divo akṛṇod ayaṁ saḥ | ayam pīyūṣaṁ tisṛṣu pravatsu somo dādhārorv antarikṣam ||

पद पाठ

अ॒यम्। सः। यः। व॒रि॒माण॑म्। पृ॒थि॒व्याः। व॒र्ष्माण॑म्। दि॒वः। अकृ॑णोत्। अ॒यम्। सः। अ॒यम्। पी॒यूष॑म्। ति॒सृषु॑। प्र॒वत्ऽसु॑। सोमः॑। दा॒धा॒र॒। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:30» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (अयम्) यह (सोमः) सोमलता का रस (तिसृषु) तीन भूमि आदिकों (प्रवत्सु) नीचे के स्थलों में (पीयूषम्) अमृत को (दाधार) धारण करता है और जो (अयम्) यह (पृथिव्याः) पृथिवी से (वरिमाणम्) श्रेष्ठपने को और (दिवः) सूर्य्य के प्रकाश से (वर्ष्माणम्) वृष्टि करनेवाले को (अकृणोत्) करता है (सः) वह सब मनुष्यों से उत्तम प्रकार ग्रहण करने योग्य और जो (अयम्) यह (उरु) बहुत (अन्तरिक्षम्) मध्य में नहीं नष्ट होनेवाले को धारण करता है (सः) वह यह सब का सुख करनेवाला है ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो सोमलतारूप ओषधि का रस वायु के साथ भूमि को, किरणों के साथ सूर्य्य को धारण करता है, उसको ग्रहण और सेवन करके सब रोगरहित होओ ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! योऽयं सोमस्तिसृषु प्रवत्सु पीयूषं दाधार योऽयं पृथिव्या वरिमाणं दिवो वर्ष्माणमकृणोत् स सर्वैर्मनुष्यैः सङ्ग्राह्यो योऽयमुर्वन्तरिक्षं दाधार सोऽयं सर्वेषां सुखकरोऽस्ति ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (सः) (यः) (वरिमाणम्) वरस्य भावम् (पृथिव्याः) (वर्ष्माणम्) वर्षकम् (दिवः) सूर्य्यप्रकाशात् (अकृणोत्) करोति (अयम्) (सः) (अयम्) (पीयूषम्) (तिसृषु) भूम्यादिषु (प्रवत्सु) निम्नेषु (सोमः) (दाधार) धरति (उरु) बहु (अन्तरिक्षम्) अन्तरक्षयं कारणाख्यम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यस्सोमो वायुना सह भूमिं किरणैस्सह सूर्य्यं दधाति तं सङ्गृह्य सेवित्वा सर्वेऽरोगा भवत ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! सोमलतारूपी औषधींचा रस वायूबरोबर भूमीला, किरणांबरोबर सूर्याला धारण करतो त्याचे सर्वांनी ग्रहण केले पाहिजे व निरोगी बनले पाहिजे. ॥ ४ ॥